थकी हुई चाल और मरे-मरे
कदमों से गर्दन झुकाए हरिप्रसाद दालान में पड़ी टूटी कुर्सी पर धम्म से बैठ
गए। बरसों पुरानी कुर्सी चरमरा उठी। शायद वो भी हरिप्रसाद की व्यथा से व्यथित
जान पड़ रही थी। लता ने बाहर झांका तो हरिप्रसाद को उदास और टूटा हुआ
पाया। उसने एक गिलास पानी लाकर हरिप्रसाद को थमा दिया। कुछ पूछना या प्रश्न
करना बेमानी था। उनकी लुटी-लुटी रंगत अपनी व्यथा कह रही थी। हरिप्रसाद ने एक
सांस में गटागट पानी पिया और खाली ग्लास लता को थमा दिया।
लता की आंखों का सामना होते ही वे अपराधी भाव से कातर हो उठे। लता के आंचल में मुंह देकर हो वे फूट-फूट कर रो पड़े।
लता
व्यथित उदास हरिप्रसाद के बालों में ऊंगलियाँ घुमाती रही। उसकी आंखों में
भी झर-झर आंसू बह रहे थे। यह कैसा समाज है, कैसी ईश्वर की दुनिया है। एक
अच्छा लेखक आज दर-दर का भिखारी हो गया था। लेखक जो इस समाज की धुरी होता है
दिन -रात सरस्वती की सेवा करने वाले से पता नहीं लक्ष्मी इतनी क्यों रुष्ट
हो जाती है। लेखकों ने समाज को दिशा बोध दिया, अच्छा साहित्य दिया। लेकिन
बदले में समाज ने क्या दिया? भूख, बेकारी, फटेहाल जीने की सजा। क्यों ?
आखिर क्यों? क्या इस समाज का लेखकों के प्रति कोई दायित्व नहीं? क्या यूं
ही अच्छे लेखक अंधकार के गर्त में समाते रहेंगे? ये सारे प्रश्न अनुत्तरित
हैं। इस क्यों का जवाब कौन दे?
हरिप्रसाद के एक उपन्यास 'हरे कांच
की चूड़ियाँ' ने साहित्य जगत में धूम मचा दी थी। लाखों प्रतियाँ हाथों हाथ
बिक गईं। उनके इस उपन्यास ने एक रिकार्ड बनाया था। प्रकाशन मालामाल हो गए।
एक समारोह में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा शील्ड प्रदान की गई। उन्हें
राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा गया। हरिप्रसाद भी खुश थे। नाम और दौलत सब कुछ
हासिल हो रहा था। रायल्टी की हर महीने एक मोटी रकम उन्हें मिल रही थी।
हरे
कांच की चूड़ियाँ नारी के भावनात्मक पहलू को उजागर करने वाला उपन्यास था।
नारी के बहुत ही कोमल मनोभावों को उजागर करता यह उपन्यास नारियों का विशेष
चहेता था। हजारों पाठक-पाठिकाओं के रोज प्रशंसा भरे पत्र उन्हें मिलते
जिन्हें वे सहेज कर एक फाईल में लगाते रहते। उन्हीं प्रशंसकों की भीड़ में
लता भी शामिल थी। उपन्यास के पहले पेज पर उनका फोटू भी छपा था और सम्मानित
होने के बाद तो कई अखबारों में भी उनकी तस्वीर सुर्खियों में थी। लता ने
पता नहीं कब और कैसे उन्हें अपना दिल सौंप दिया था।
हरिप्रसाद के
पास लता के पत्र अक्सर ही आने लगे। लता पढ़ी-लिखी, अच्छे खानदान की युवती
थी। पत्रों का आदान-प्रदान कब प्यार में परिवर्तित हो गया इसका दोनों को ही
भान नहीं था। पत्रों का सिलसिला जब भी मंद पड़ता दोनों तड़पने लगते। आखिर
दोनों ने विवाह करने का फैसला कर लिया।
जिस दिन पहली बार हरिप्रसाद
लता के घर देहरादून गए तो उनका दिल बुरी तरह धड़क रहा था। कुछ तो लता से
प्रथम साक्षात्कार की उमंग थी, कुछ डर था कि कहीं उसके पिता इनकार न कर दे।
लता
के पिताजी ने इनकार तो नहीं किया। लेकिन स्वागत भी उत्साहजनक नहीं था। हां
लता का सामना होते ही जबान पर ताले पड़ गए। पत्रों के माध्यम से पनपा
प्रेम इतना खूबसूरत होगा यह तो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। लता ने
अपनी तस्वीर भेजी थी। लेकिन बेजान तस्वीर तो तस्वीर ही थी। रुबरु अपने
हमसफर को देखकर आंखों की पुतलियों ने हरकत करना ही बंद कर दिया।
चंपई
रंग, सांचे में ढला बदन, बड़ी-बड़ी आंखें और नागन सी बल खाती लंबी चोटी सब
कुछ इतना सुंदर था कि हरिप्रसाद एक बार तो डर गए कि कहीं ऐसी रूपसी का हाथ
अच्छी खासी आमदनी वाले पिता मुझ जैसे लेखक के हाथ में देने से इंकार न कर
दें। लता ने बाद में बताया कि घर वालों के साथ इस शादी की रजामंदी लेने के
लिए कितना संघर्ष करना पड़ा था।
खैर, सादे से समारोह में लता और
हरिप्रसाद का विवाह हो गया और लता अपने साजन के घर आ गई। हरिप्रसाद के तो खुशी के मारे पांव ही जमीन पर नहीं पड़ते थे। लता के हाथों में जतन से पहनी
हरे कांच की
चूड़ियों की खनक में दिन पंख लगाकर उड़ने लगे। दिन-रात
पत्नी के प्यार में डुबकियाँ लगाते हरिप्रसाद यह भी भूल गए कि वे एक लेखक
हैं। उन्हें भविष्य के लिए लिखना भी है। उनकी रोजी रोटी ही लेखन है। इधर घर
का खर्च बढ़ा उधर रायल्टी दिन ब दिन घटती गई। साथ ही लेखन भी नहीं के
बराबर हो रहा था। घर की आर्थिक स्थिति डगमगाने लगी। यूं लता बहुत ही सुघड़
गृहिणि साबित हुई। लेकिन आवश्यक जरुरत भर पैसा तो चाहिए ही।
इसी बीच
लता एक बच्चे की मां बन गई। साहिल के जन्म पर लता की जान मुश्किल से बची।
ब्लड ग्रुप बी नेगेटिव था। हफ्तों अस्पताल में रहना पड़ा। दवा दारु के
चक्कर में जमा-पूंजी भी घटती गई। हरिप्रसाद ने दिन-रात एक करके फिर 'महुआ'
नाम से एक उपन्यास लिखा। प्रकाशक ने छापा भी लेकिन वो अधिक नहीं चल पाया।
घर गृहस्थी की चक्की में पिसते और पत्नी की बिमारी ने मनोभावों की कोमलता
हर ली। उन्होंने फिर एक नया उपन्यास लिखा लेकिन 'प्रकाशक' ने छापने से
इन्कार कर दिया। 'महुआ' से उसे घाटा उठाना पड़ा था अतः वो रिस्क लेने को
तैयार न था। हरिप्रसाद टूट गए। इसका सीधा असर उनके लेखन पर पड़ा।
दुनियादारी और यारों की बेवफाई के मक्कड़ जाल में शब्दों का संसार कहीं खो
सा गया।
बच्चे के जन्म के बाद से ही लता बुझ सी गई। उसका स्वास्थ्य
दिन ब दिन गिरने लगा। चौबीस घंटे हल्का ज्वर रहने लगा। दवा-दारु और खाने
पीने के अभाव में वो सूखकर कांटा हो गई। दैदिप्यमान सौंदर्य खो गया। लेकिन
उसने उफ तक नहीं की। पति और पुत्र की सेवा में वो दिन-रात गृहस्थी की चक्की
में पिसती रही। उदास सूनी आंखों से पति पुत्र पर प्यार की वर्षा करती रही।
कभी कोई गिला शिकवा उसने होंठों पर नहीं आने दिया। बस दिन-रात जलते जलते
दिए सी प्रज्जवलित रहती और अपनी प्रीत और ममता के नीर से गृहस्थी की बगिया
सींचती रही। लंबे ज्वर से टूटकर एक दिन लता ने भी संसार से विदा ले ली।
हरिप्रसाद ठगे से लुटे-लुटे अपनी दुनिया लुटती देखते रह गए। नन्हें साहिल
को सीने से चिपकाए वे फफक-फफक कर रो पड़े। उनके दिलो दिमाग ने काम करना बंद
कर दिया। जिधर देखते अंधकार ही अंधकार नजर आने लगा।
अपनी आंखों के सामने लता की सजती अर्थी देखते रहे। अर्थी उठने से पूर्व वे अंदर गए और हरे कांच की चूड़ियों का पैकेट उठा लाए जो वे लता को उसके जन्मदिन पर देने के लिए लाए थे। अगले हफ्ते ही लता का जन्मदिन आने वाला था। उन्होंने बढ़कर हरे कांच की चूड़ियाँ लता की बेजान कोमल कलाई में डाल दी। आस-पास खड़े लोग सुबक पड़े। बहुत ही कारूणिक दृष्य था।
लता को जब चिता पर
लिटाया गया तब तो उनके सब्र का बांध ही टूट गया। साहिल को नीचे सुलाकर दौड़
पड़े चिता की तरफ और लता के बेजान जिस्म से लिपट कर दहाड़े मार-मार रोने
लगे। लोगों ने आंखें
पोंछते हुए उन्हें लता की लाश से अलग करके पास ही
पत्थर बैठा दिया। पड़ोसी ने साहिल के हाथ से छुआ कर अग्नि की मशाल चिता को
दिखा दी। चंद ही मिनटों में चिता धू-धू कर जल उठी। हरिप्रसाद के सारे सपने,
सारे अरमान जलती चिता की भेंट चढ़ गए। वे साहिल को सीने से चिपकाए लता को
अग्नि की भेंट चढ़ते देखते रहे। लकड़ियों के चटकने के साथ लता के हाथों में
पहनी हरे कांच की चूड़ियां भी चटख -चटख कर बाहर गिर रहीं थीं। चूड़ी का एक
टुकड़ा चटख कर उनके कदमों के पास आ गिरा। उन्होंने झुककर गर्म चूड़ी के
टुकड़े को उठाया और उसे देखते रहे । मानों वे लता की आंखों में आंखें डालकर
निहार रहे हों । लता द्वारा चिता से भेजा हुआ नजराना उन्होंने चूम कर अपनी
जेब में डाल दिया।
इस अंतिम विदाई की बेला में भी लता उन्हें प्यार भरा नजराना देना नहीं भूली थी।
0 टिप्पणियाँ