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हमारी जीवन शैली और वास्तु | HAMARI JEEVAN SHAILI OR VASTU | OUR LIFESTYLE & VASTU | SARAL VICHAR

हमारी जीवन शैली और वास्तु 

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आयुर्वेद और वास्तुशास्त्र एक दूसरे के पूरक हैं। आयुर्वेद याने हम जो स्वस्थ जीवनशैली अपनाते हैं। योग करते हैं। सात्विक खाना खाते हैं। नियम, संयम से रहते हैं।

वास्तु - यह शरीर जो पांच तत्वों के बैलेंस से बना है उसी प्रकार हमारा घर जिस में हम रहते हैं उनमें भी इन पांच चीजों का बैलेंस होना चाहिए । वास्तु बहुत कठिन चीज नहीं है। किंतु हम उसे ठीक से समझ नहीं पाते, बैलेंस नहीं करते और बिमारियों का शिकार होते हैं । जब हमारे शरीर में कोई चीज घटती या बढ़ती है तो हम बिमार होते हैं और हमारे घर में अगर यह बैलेंस बिगड़ता है तो हमारे जीवन में कठिनाईयां आती हैं। 

 हमारे घर में (plot) के चार कोने होते हैं।

इशान्य कोना जल का होता है। आग्नेय कोना अग्नि का होता है। वावव्य में वायु और नैतृत्य में पृथ्वी तत्व होता है। बीच का स्थान ब्रह्मस्थान होता है।

इशान्य कोण छोटे बच्चों का होता है। अग्नि कोना स्त्रियों का होता है। नैतृत्य कोना घर के मालिक का या पुरुषों का होता है । वाव्यव कोना मानसिक शांति का होता है।

अगर इनमें से किसी भी कोने में दोष हो जाए तो उन्हीं लोगों पर इसका प्रभाव पड़ता है। वैसे भी घर का एक भी सदस्य बिमार हो जाए या परेशान रहे तो पूरा घर ही बिमार या परेशान हो जाता है।

हम वास्तु अनुरुप घर में रहते हों किंतु हमारी जीवनशैली अगर ठीक नहीं तो हम कैसे ठीक रह सकते हैं।
जीवन की दिनचर्या में थोड़ा फेरबदल कर हम स्वयं को ठीक रख सकते हैं। हमारे पूर्वज बहुत ही समझदार थे। उन्हें काफी ज्ञान था । ये भी कह सकते हैं कि पहले जब मकान बनाते थे तो वास्तु के अनुसार ही घर बनते थे।

अगर किसी को मकान बनाना होता था या अगर राजा को महल बनवाना होता तो वास्तुशास्त्री पूछते थे कि आपको इस महल या मकान से यश चाहिए या पैसा तो उसी अनुसार महल या घर बनते थे (पहले के जमाने में जो सुतार, लोहार, मिस्त्री ही वास्तु जानते थे। ब्राह्मण तो कर्मकांड करते हैं। वास्तुशास्त्री तो होते ही नहीं थे।) वे घर के दरवाजों में फेर बदल करते थे किंतु जहां अग्नि है उसे वहीं स्थान देते थे । इशान्य कोण में सिर्फ पूजा का स्थान ही रखते थे उसे दूषित नहीं करते थे । तभी तो पहले के लोगों का स्वास्थ्य ठीक रहता था।

आईए अभी आज की जीवन शैली और पहले जमाने के लोगों की बात की जाए। दिनचर्या से भी काफी हद तक शरीर को ठीक रखा जा सकता है।

वात, पित्त, कफ

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० से १४ साल के बच्चों में कफ की मात्रा अधिक होती है।

१५ से ६० साल पित्त का प्रकोप रहता है।

६० के बाद वात का प्रकोप रहता है। हम लोग देखते हैं कि बूढ़े लोग कहते हैं कि पैर दुख रहे हैं। यह वात का प्रकोप होता है ।

नींद


० से ४ साल तक के बच्चों को १६ घंटे की नींद चाहिए। ४ से ८ वर्ष के बच्चों को बारह से चौदह घंटे की नींद चाहिए।

८ से १४ वर्ष के बच्चों को आठ से नौ घंटे सोना चाहिए। १४ से ६० वर्ष के लोगों को छ: से आठ घंटे की नींद पर्याप्त है। इस उम्र में अगर नींद ठीक से नहीं आती तो पित्त का प्रकोप बढ़ जाता है। इंसान अपने आप ही बड़बड़ाने लगता है।
६० के बाद नींद कम हो जाती है। नींद तो हर उम्र के लोगों के लिए बहुत आवश्यक है। हम लोग गरम देश में रहते हैं तो हमें सुबह ब्रह्म मुहुर्त में उठना चाहिए। वैसे तो ४ बजे ब्रह्म मुहुर्त होता है, किंतु ५-६ बजे तो इंसान को उठ ही जाना चाहिए क्योंकि रात को अगर लेट सो रहे हैं तो... ।

बच्चों को (० से ४ वर्ष) १६ घंटे की नींद नहीं मिलती तो वे चिड़चिड़े हो जाते हैं। कहना नहीं मानते, एक जगह नहीं बैठते । हमेशा मारपीट करते हैं। ये परेशानियां तो होंगी ही । क्योंकि उन्हें नींद की आवश्यकता है। हम छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल भेजते हैं। सुबह जल्दी उठाते हैं। छोटे बच्चों को सुबह १० बजे के बाद स्कूल भेजिए तो उसकी नींद भी पूरी होगी वह चिड़चिड़ा भी नहीं होगा। नींद पूरी करेगा बच्चा, तभी तो कुछ सीख पाएगा। वह क्लास में ही सो जाएगा या बस या वैन में ही सो जाएगा। नींद कम होने की वजह से उनके शरीर में कफ भी बढ़ जाता है।

कफ की बढ़ोतरी १४ साल तक रहती है। कफ की बढ़ोतरी गुनाह की प्रवृति को बढ़ाती है या कामुकता लाती है। कल्पना शक्ति बच्चों में बहुत होती है किंतु वे इसका उपयोग नहीं कर पाते । इसलिए नींद सबसे महत्वपूर्ण है। १४ साल तक तो शरीर में कफ का अधिपत्य रहता ही है किंतु कफ का शरीर में ज्यादा बढ़ जाने से दूसरी भी परेशानियां आती हैं। कफ प्रवृति वालों की कल्पना शक्ति दूसरे बच्चों की अपेक्षा तेज हो जाती है। वे इस समय सवाल ज्यादा करते हैं कि टमाटर लाल क्यों है? या काकड़ी हरे कलर की क्यों है? अगर आपको जवाब पता नहीं तो गलत जवाब उन्हें नहीं दिया करें। आप कह सकते हैं कि मुझे पता नहीं या कल बताएंगे , किंतु गलत जवाब न दें। वरना उनके मन में जिंदगी भर ये ही रहता है कि हमारे माता-पिता को कुछ नहीं आता। उनके ज्यादा सवालों से माता-पिता को भी परेशानी होती है। उन्हें नींद अगर पर्याप्त मिलेगी तो ये छोटी-छोटी बातें अपने आप छूट जाएंगी।

सोते समय इसी उम्र के बच्चों को कहनियां सुनाया करें। जैसे अगर आप साईंटिस्ट बनाना चाहते हैं उन्हें तो उन लोगों की कहानियां सुनाएं, और शूरवीर बनाना चाहते हैं तो शिवाजी जैसे वीरों की कहानियां सुनाईए।

हम आजकल बच्चों को मोबाईल दे देते हैं और कहते हैं गेम वगैरह खेलो फिर नींद आए तो सो जाना । इस उम्र में उनकी कल्पना शक्ति तो वैसे ही बहुत पावरफुल होती है। अगर आप कहेंगे कि एक राजा था, एक रानी थी तो वे मन में ही उनके मुकुट, सिहांसन याने पूरी पिक्चर बना लेंगे। आजकल बच्चे कार्टून देखते हैं। कार्टूनों की भाषा तो बड़ों की तरह होती है। वे जल्दी बड़े बन जाते हैं। बच्चों को उनकी उम्र का ही रहना चाहिए। जल्दी बड़ों जैसा दिमाग नहीं होना चाहिए।

 आजकल तो वही चल रहा है। बच्चों की फरमाईशें बड़ों जितनी हो गई हैं। क्या पहले के बच्चे होशियार नहीं थे ? देखा भी गया है कि अगर बच्चा देर से चलना सीखता है तो भी वह उतनी ही उम्र में जंप या कूदना सीखता है जितने समय में जल्दी पैदल चलने वाला बच्चा जम्प करता है हैइसमें कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।

बच्चों को बड़ा करना बहुत कठिन है। एक बार धीरु भाई अंबानी फिर भी कोई दूसरा बन सकता है किंतु बच्चों को बड़ा करना कठिन है। अच्छा इंसान बनाना है तो इन बातों का पालन करना चाहिए । बच्चों को जादुई दुनिया पसंद होती है क्योंकि उनकी कल्पना शक्ति तेज होती है। बच्चों को टाईम दिया करें भले रात को सोते वक्त थोड़ा टाईम दें। उन्हें उस वक्त कहानियां सुनाएं।

आइए अब वास्तु और शरीर की रचना को देखते हैं....

इंसान के सिर से छाती तक कफ,

 छाती से कमर तक पित्त

 व उसके नीचे वात होता है। 

वास्तु पुरुष का सिर इशान में और पैर नैतृत्य में होता है । अगर इशान में दोष होता है तो हमें कफ संबंधी समस्याएं होती ही हैं। लकवा या सिर की कोई बिमारी आती है । माइग्रेन होता है। क्योंकि यहां वास्तु पुरुष का सिर होता है। कंधे की परेशानी हो तो भी इशान में दोष होगा ।

अगर छाती से कमर तक (इसमें पेट भी शामिल है) कुछ परेशानी है, एसिडिटी है,
पथरी होती है।  रीढ़ की हड्डी में प्राब्लेम है तो जरुर ब्रह्मस्थान में दोष होगा । अगर शराब या सिगरेट पीने वाले को हार्ट अटैक नहीं आता और जो वॉक करता हो, वेजिटेरियन हो और उसे हार्ट अटैक आया तो सोचो कि कहीं ब्रह्मस्थान में तो गलती नहीं हुई है।

वैसे ही अगर अग्निकोण में दोष हो घर की स्त्री बिमार रहती है। खट्टी डकारें, पेट में जलन होती हैं।

नैतृत्य कोण में दोष हो गड्डा हो या ये भाग बढ़ा हुआ हो तो भी तरक्की रुक जाती है। पांव दुखते हैं। अगर ये भाग बड़ा हुआ हो तो पहले पहले तो खूब तर्र्क्की होगी फिर 7 साल के बाद बिना
पैराशूट के गिर जाओगे

 शरीर की रचना और घर का वास्तु भी समान होता है। जैसे घर का वास्तु ठीक हो तो घर में कोई परेशानी नहीं होती वैसे ही शरीर में वात, पित्त, कफ का बैलेंस ठीक हो तो शरीर ठीक रहता है । इनको कैसे ठीक रखा जाए? 

आईए नीचे कुछ लिखी बातों का पालन करके शरीर को ठीक रखें।

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पहले लोग उठकर उषापान करते थे । उषापान का अर्थ- बिना मुंह धोए, बिना कुल्ला किए पानी पीना । सुबह की लार काफी गुणकारी होती है। हमारी लार दूसरे जीव के लिए जहर होती है। जैसे किसी चींटी या कीड़े पर सुबह की थूक फेकेंगे तो वह वहीं पर मर जाएगा। किंतु हमारे स्वयं के लिए यह लार गुणकारी होती है । हमारी लार पानी के साथ हमारे पेट में जाती है तो एसिडीटी, जलन कम होती है। सुबह पानी पीने से पित्त शांत होता है। बच्चे और ६० साल से ऊपर के लोग दो गिलास पीएं। १४ से ६० साल के लोग ३ गिलास पीएं।

हमारी संस्कृति में भारतीय तरीके से शौच क्रिया होनी चाहिए। पाश्चात्य तरीके से शौच नहीं होनी चाहिए । पश्चिम देशों में वहां के लोगों के घुटने बहुत नाजुक होते हैं। हड्डियां नाजुक होती हैं। ईश्वर की कृपा है यहां । धूप भी मिलती है शरीर को । तो यहां के लोग नाजुक नहीं हैं। भारतीय शौचालय में बैठने से आंतों पर जोर पड़ता है और पेट साफ आता है।

सुबह लोग ब्रश करते हैं, किंतु ब्रश भी अंग्रेजों की देन है। वहां के लोगों के मसूड़े भी नाजुक होते हैं। वहां इतनी ठंड है कि वहां शरीर कमजोर हो जाता है । यहां के लोगों को तो ब्रश से कठिनाईयां होती हैं। अब आप कहेंगे कि दातून कहां से लाएं? दातून अगर कोई ढूंढे तो मिल जाएगा। आपने देखा होगा सुबह-सुबह स्टेशनों पर दातून बिकते हैं किंतु लोगों का ध्यान ही नहीं जाता। हमारे शरीर पर सुबह पित्त का प्रकोप रहता है। टूथपेस्ट मीठी होती है। उसमें शक्कर होती है। शक्कर में सैक्रिन होती है। सैक्रिन और हमारे शरीर का पित्त, शरीर में पित्त को और बढ़ाते हैं। सुबह-सुबह कड़वी चीज या पावडर होना चाहिए। कुछ नहीं मिले तो नीम के पत्तों को सुखाकर पावडर बना लिया करें । उससे मंजन करें। अगर दातून है तो इससे अच्छा कोई विकल्प नहीं । दातून से हमारे मुंह के जिवाणु मरते हैं । और अगर पेट में उसकी रस जाए तो पेट के लिए औषधि होते हैं ।

स्नान को ही लें तो गर्म पानी से स्नान नहीं करना चाहिए। हम गर्म देश में रहते हैं। हमारा शरीर गर्म प्रकृति का है। इसलिए ठंडे पानी से स्नान करना चाहिए। गर्म पानी सर के ऊपर डालने से मोतियाबिंद होता है। किंतु लोगों को आदत हो जाती है गर्म पानी से स्नान करने की। जिनको गर्म पानी से नहाने की आदत है या सर्दियों में या बच्चों को ठंड लगे तो बहुत गर्म पानी न करें। मामूली गर्म करें। जिससे चमड़ी, आंखों को नुकसान न हो। वरना कितने ही लोग ठंडे पानी से यहां भी स्नान करते हैं।

सुबह लोग मंदिर जाते हैं। हमें मंदिरों में शांति का अहसास क्यों होता है? आपको मालूम होगा कि मंदिर गांव से बाहर पहाड़ों पर होते थे। पहाड़ पिरामिड के आकार के होते हैं। पिरामिड के प्वाईंट पर एनर्जी होती है। सबसे पहले पहाड़ों के ऊपर मूर्ति रखते थे । उसके बाद दिवारें बनाते थे । मूर्ति के पैरों के पास तांबे के पांव या तांबे पर श्लोक लिख देते थे ताकि लोग उसे छूएं तो उस पिरामिड की जिस पर मूर्ति रखी है उसकी एनर्जी, उसकी उर्जा लोगों को मिले ।

हम देखते हैं कि मंदिर का दरवाजा खुलता है तो हमें शांति का अहसास होता है। वही उर्जा, वही एनर्जी होती है जो शांति देती है। प्रदक्षिणा का भी यही अर्थ है कि वहां की उर्जा हमें मिलती है।

चाय भी पश्चिमी लोगों का पेय है। वहां ठंड अधिक होती है। तो चाय की वहां पर जरुरत है। हम भारत में गरम देश में रहते हैं। चाय यहां का पेय नहीं है। पश्चिमी लोग ब्लैक कॉफी, ब्लैक टी लेते हैं। हमारे यहां तो शुरु से ही दूध की नदियां बहती हैं। याने दूध दही की कमी नहीं इस देश में तो लोगों ने चाय में दूध डालकर चाय का सेवन करना शुरु कर दिया। चाय में दूध तो शरीर के
पित्त को बढ़ाता है ।

 आजकल तो चाय के बिना सर में दर्द हो जाता है क्योंकि हमने ही तो आदत डाली है । नाश्ता करने का हमारे शास्त्रों में कहीं वर्णन नहीं है। पहले लोग नाश्ता नहीं करते थे कि सुबह हल्का- फुल्का खा लिया। यह सब तो अंग्रेज लोगों की पद्धति है। ब्रेक फास्ट हमारे जीवन में कहीं नहीं आता है। पश्चिम में तो ६-७ महीने सूर्य ही नहीं उगता, खाना हजम नहीं होता तो सुबह वे लोग हल्का नाश्ता लेते हैं। वहां का भौतिक जीवन या तापमान ही वहां का ऐसा है।

भारत के लोगों का शरीर भी सूर्य के अनुसार ही है। याने जैसे सूर्य की गर्मी सूर्य उगने के ढेड़ घंटे बाद व शाम को सूर्यास्त से पहले बढ़ती है तो उसी प्रकार सूर्योदय के ढेड़ घंटे बाद आप खाना खाईए । शाम को सूर्यास्त के ४० मिनट पहले खाना खाईए क्योंकि उस वक्त हमारी जठराग्नि तेज होती है।

वैसे भी हमें सुबह भारी खाना व दोपहर को इससे हल्का व रात को बिल्कुल हल्का खाना खाना चाहिए।

भारतीय स्त्रियों में सिंदूर लगाने का व चूड़ियां पहनने का चलन है । जैसा कि आपको पता है हमारे पूर्वज बहुत ज्ञानी थे । सिन्दूर में हल्दी, चूना और पारा रहता है । ये तीनों ब्लड को कंट्रोल करते हैं। दिमाग भी शांत रहता है। चूड़ियों से खून की नलियां एक्टिव होती हैं । ब्लड सर्कुलेशन ठीक होता है। इसलिए भारत की स्त्रियों के सिंगार में ये दोनों चीजें भी शामिल हैं।

खाने-पीने में सावधानी रखें । घर में वास्तु भी ठीक रखें तो शरीर को और जिंदगी को काफी हद तक ठीक रखा जा सकता है। आयुर्वेद याने हमारी स्वस्थ दिनचर्या और वास्तुशास्त्र दोनों मिलकर चलें तो मनुष्य की बहुत उन्नति होती है।

-डॉ महेश सुर्वे 

 

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