तो बुद्ध ने कहा, "स्त्रियां अगर मिल जाएं तो बचकर चलना। दूर से निकल जाना।"
आनंद ने कहा, "और अगर ऐसी स्थिति आ जाए कि बचकर न निकल सकें?
तो बुद्ध ने कहा," आंख नीची झुकाकर निकल जाना।
आनंद ने कहा, और यह भी हो सकता है कि ऐसी स्थिति आ जाए कि आंख भी झुकाना संभव न हो। समझो, कि कोई स्त्री गिर पड़ी हो और उसे उठाना पड़े। या कोई स्त्री कुएं में गिर पड़ी हो और जाकर उसको सहारा देना पड़े या कोई स्त्री बीमार हो... ऐसी स्थिति आ जाए कि आंख बचाकर भी चलना मुश्किल हो जाए?
तो बुद्ध ने कहा, "छूना मत।"
और आनंद ने कहा, "अगर ऐसी अवस्था आ जाए कि छूना भी पड़े? तो बुद्ध ने कहा, कि जो मैं इन सारी बातों से कह रहा हूं, उसका सार कहे देता हूं...छूना, देखना, जो करना हो करना - पर होश रखना।
इन सारी बातों में मतलब वही है।
तो बुद्ध ने कहा, फिर मैं तुझे सार की बात कहे देता हूं। ये तो गौण बातें थीं। लेकिन उन सब गौण बातों में जैसे धागा मूल्यवान है । जैसे माला के मनकों में धागा अनुस्यूत होता है। मनके दिखाई पड़ते हैं, धागा दिखाई नहीं पड़ता-वह है होश।
कबीर उसको ही सुरति कहते हैं। और जिस व्यक्ति का होश सध जाए, फिर उसे कोई उलटा-सीधा, असहज क्रम नहीं करना पड़ता । कबीर कहते हैं, न तो मैं नाक बंद करता, न आंख बंद करता, न उलटी-सीधी सांस लेता, न प्राणायाम करता, न उलटा सिर पर खड़ा होता, न शीर्षासन करता, कुछ भी नहीं करता, सिर्फ होश को सम्हालकर रखता हूं। सिर्फ सुरति को बनाए रखता हूं। बस सुरति का दीया भीतर जलता रहता है। और जीवन पवित्र हो जाता है।
* हर समय हम किसी न किसी चिंता से ग्रस्त क्यों हैं?
एक गाँव में रमा नाम का एक युवक रहता था। रमा हमेशा चिंता में रहता था। सुबह उठते ही उसे सोचने लगता था कि आज क्या होगा, क्या कुछ बुरा हो जाएगा? खेतों में काम करते हुए भी उसके मन में विचार चलता रहता। रात को नींद भी नहीं आती थी, डर लगता था कि कहीं कुछ अनहोनी न हो जाए।
एक दिन गाँव में एक संत महात्मा आए। रमा उनके पास गया और अपनी चिंता का दुःखड़ा रोने लगा।
महात्मा ने धीरज से रमा की बात सुनी और मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, चिंता एक ऐसी छाया है जो तुम्हारे साथ चलती रहती है। तुम जितना इससे भागोगे, यह उतनी ही तुम्हारे पीछे दौड़ेगी।"
रमा ने पूछा, "तो फिर मैं क्या करूँ?"
महात्मा ने कहा, "इस छाया का सामना करना सीखो। जब भी तुम्हें चिंता हो, तो एक गहरी सांस लो और सोचो कि क्या यह चिंता वाकई जरूरी है? क्या इससे कुछ बदलेगा? यदि नहीं, तो फिर इस पर क्यों परेशान होना?"
रमा ने महात्मा की बात माननी शुरू की। जब भी उसे चिंता होती, वह गहरी सांस लेता और सोचता। धीरे-धीरे उसे एहसास हुआ कि उसकी ज्यादातर चिंताएँ बेकार थीं।
कुछ समय बाद रमा चिंतामुक्त हो गया। उसने जीवन का आनंद लेना शुरू कर दिया। अब वह हर पल को खुशी से जीता था।
कहानी का सार:
चिंता एक ऐसी छाया है जो हमारे साथ चलती रहती है।
इससे भागने की बजाय इसका सामना करना चाहिए।
ज्यादातर चिंताएँ बेकार होती हैं।
चिंता से मुक्त होकर जीवन का आनंद लिया जा सकता है।
* मत करना निराशा की बात, जीवन संबल की आशा है। कर्तव्य कर्म करते जाओ, यह जीवन की परिभाषा है।
मन शान्त रखो विचार करो ! फिर निर्णय लो। क्योंकि तकलीफ सिर्फ आपको होगी, दुःख भी आपको ही होगा !
आवाज से आवाज नहीं मिटती बल्कि चुप्पी से मिटती है ।शत्रु का लोहा चाहे कितना गर्म हो जाए , हथौड़ा तो ठंडा रहकर ही अपना काम कर देता है। मन शान्त रखोगे तो, सुख भी आपको ही मिलेगा।
* जैसे ही मैंने...
जैसे ही मैंने अपना क्रोध कम किया है।
वैसे ही शांति का घर मे आगमन हुआ।
जैसे ही मैंने निस्वार्थ कर्म किया है वैसे ही मुझे संतोष धन मिला है।
जैसे ही मैंने किसी की मदद को हाथ बढ़ाया है।
वैसे ही अपने गमों को कोसो दूर भगाया है।
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